बचपन क्यों इतना मासूम है।
क्या अच्छा,क्या बुरा, क्यों नहीं इसे मालूम है।
दोस्ती, मौजें,खिलौने ही इनकी चाहते हैं,
रोटी कपड़ा ,मकान, कहां इनकी आफ़ते हैं।
अच्छा है ये इन सब से बेख़बर है,
इनकी सपनों की दुनिया भी एक विचित्र नगर है।
जिसमें चंदा इनके मामा है, तो सूरज पार इनको जाना है।
कुछ पल इनके साथ जो बीता दिए हमने ,
इनके लिए तो वही एक बहुमूल्य खजाना है।
काश फिर से हम बच्चे बन जाते,
रोज़ कुल्फी और गुड़िया के बाल खाते।
बचपन जि़ंदगी का वह पन्ना है,
जो अगर फिर से खुल जाए तो लगे नहीं पलटना है।
बस इसी को बार बार जीते रहना है।।
बच्चों को जब देखती हूँ, बच्चों में तब जीती हूं।
बचपन मेरा लौट आता है, मीठी यादों में खो लेती हूं।
तब लगता है यह कोई सुहाना सपना है,
बस इसी को बार बार जीते रहना है।
कवयित्री: ऋचा गांग |