कितना खास था वो एहसास ,
जैसे हो खुद से मिलने का आभास ।
खामोश से थे तुम, चुप सी मैं ,
बातें न शब्दों में, न ही आँखों से।
साँसे थी साँसो में घुली हुई ,
पर ऐसे, की न बढ़ी न ही थमी हुई ।
अनजान नहीं, तो पहचान भी खास नहीं ,
पर एक दूसरे को, जानने का भी प्रयास नहीं ।
मिली हो मानो , एक दूजे की धड़कन,
सानिध्य की स्वीकृति देता मेरा अंतर्मन।
कुछ तो झिझक थी , था कुछ मीठा सा डर,
मैं जिसे खोजती रही , शायद वही थी ये डगर।
The purity of convergence of two distinct souls & the hesitation within put across nicely !
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