November 10, 2020
कर दू तुझे रिहा?
October 18, 2020
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
Even when my son was getting married I was not in the right mood. I was always thinking as if life is coming to the end. I was running from pillar to post for my check-up. This is called obsessive-compulsive disorder. I passed pitiable 3 years and forgot what is happiness. I started getting weak.
But one fine day I just threw this obsession out of the window. जो होगा अच्छा होगा! I concentrated on music and sports. My friends helped me a lot including my brother like Dr. P P Khandelwal Sahib and other friends who are musical and sportsperson. I kept myself occupied and
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
These
persons all the time get captivated by these stories. They cherish talking
about such fiascos things in their life. Neither they remain happy nor allow others to remain happy.
Author: Mr. Anil Khandelwal
He is a Chartered Accountant, has been in the practice of Project Financing for the past 25 years and corporate service for 11 years, residing in Jaipur. Mr. Khandelwal is the Admin of a variety of groups which include Finance, Economy, Music, Quotations, Political discourses comprising of top minds, administrators, bankers, Doctors, real estate developers & Professionals across the conceivable sectors, managing them all well.
October 9, 2020
That I'll never forget her!
I've been blessed to spend many summers with my great-grandmother while I would not meet a lot of people since I'd come to India only for a few days in a year. She was definitely the one who's made a big difference in my life, despite a huge generation gap and infrequent calls. She was the lady they talk about in movies. Much more than that. She was always such a delight to spend time with. As kids we'd spend time in her room which was right next to the entrance, listening to beautiful stories she would share with us. When my brother and I would run around the house, she'd tell us how much she loved the bond between us and told us about her relationship with her brother. The best part would be how we'd run to fill Dadisa's प्याली from which she drank water. There were times when I'd not understand what she said in Marwari, but there were also times where she was reading me English words written in Hindi which we did not even realize for a while😂
There's so much I've learned from her, for she was so loving, yet bold and strict. She'd always narrate her experiences, but none of them were ever even slightly close to boring. I'd love listening to her.
Every time my back would hurt or my ankle pain as my excuse to not do something, she was the one who walked around despite suffering from paralysis.
She told us about the most important decisions she'd taken and advised us how to deal with various types of people we will definitely come across in our lives. Her energy was such that it filled me only confidence and confidence but nothing else. She filled me with the strength to make mistakes and get up.
She was the most religious person I have known in my entire family. She was definitely the person who convinced us to believe in the faith honestly, with practical reasons. It is inspiring and heart touching that she donated her body and her money and most importantly her knowledge. That she was the most thoughtful person I've known in these 20 years. That I'll never forget what she taught me. That I'll never forget her.
Pankhuri Bhandari
July 23, 2020
An Ode to Mathai Ma’am
July 16, 2020
The Power of Punya (Reminiscing 'The Peak')
A tribute to Smt. Rishabha karnavat on her 90th birthday
The document further stated that her share (one-third of the whole) will be further divided into three parts: one for each of her two daughters and one for herself. I told her that her daughters neither need it nor they wish to get a share from this property. I also informed her that at the time of the death of her husband, the daughters had already relinquished their rights in the property in favor of their brothers.
But if you know the power of Punya, good karma, and pious life, you won't be surprised.
Author: Ramesh Kumar Jain IAS (Retd.)
Edit & photos :Hina Mohnot
July 4, 2020
श्रीमती ऋषभा करनावट
सोजत सिटी के एक शिक्षित एवं प्रतिष्ठित दंपति श्री राखडमल सा सिंघवी और श्रीमती उमराव कंवर भंडारी के घर दिनांक 4 जुलाई 1930 के दिन एक नन्ही बालिका ने जन्म लिया और प्यार से उसका नाम रखा गया, मैना.
सोजत सिटी के सरकारी हाई स्कूल के प्राचार्य श्री सिंघवी के घर यह चौथी सन्तान थी. जब प्रथम संतान के रूप मे एक कन्या का जन्म हुआ तब उसका लक्ष्मी के घर आने की भांति स्वागत किया गया और नाम रखा गया, चंचल अर्थात् लक्ष्मी. समाज में पुत्र प्राप्ति की प्राथमिकता उस युग में और भी अधिक थी। जब दूसरी संतान भी कन्या हुई, तो उसका प्यार का नाम रखा गया, आचुकी, अब लक्ष्मी बहुत आ चुकी है। जब तीसरी संतान भी लड़की हुई, तो उसे कहा गया, धापी, पर्याप्त हुआ, अब और लड़की नहीं चाहिए।
मैना, राखड़ मल सा की चतुर्थ संतान थी, और इसका तात्पर्य था कि, अब मैना पक्षी की भांति उड़ जाओ, और भविष्य में पुत्र रत्न की प्राप्ति हो।
ऐसा ही हुआ भी। राखड़ मल सा को पांचवीं संतान एक सुन्दर पुत्र के रूप में प्राप्त हुई, और सर्वत्र आनंद और संतोष की लहर दौड़ गई। लेकिन यह बालक संसार में मात्र 10 माह की वय लेकर आया था।
एक सुशिक्षित एवं जागरूक श्री राखड़ मल सा ने यह तय किया कि वे अपनी सबसे छोटी बेटी को अपना बेटा जैसा ही मानेंगे और वैसे ही लाड प्यार से उसे बड़ा करेंगे। उन्होंने उसका नाम रखा, ऋषभ(बाद में रिषभा)।
रिषभा जब तीन वर्ष की थीं, तब उनकी माता जी को प्रसवोत्तर लकवा हो गया था । चूंकि तीनों बड़ी बहनें स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने जाती थीं, इसलिये उनके हिस्से में अपनी बीमार माँ की सेवा आई। इसलिये भी उनकी पढाई लिखाई एक न्यूनतम स्तर पर घर पर रह कर ही हो पाई। लेकिन पिताजी की देख रेख में , बुजुर्गों के संरक्षण में तथा माँ की ममता व सीख के साथ उनका संस्कार जनित लालन पालन हुआ। धर्म, अनुशासन, त्याग, तपस्या और सेवा भाव उन का स्वभाव बन गया।
नन्ही रिषभा जी जब अपने ईर्दगिर्द पडौस के भाई बहनों को खेलते देखतीं थीं तो उनके मन में खुद के भाई होने की इच्छा जागृत होती थी। यह बात उन्होंने अपने पिताजी से साझा की। पिता अपनी पुत्रियों व नन्हीं रिषभा की भावना समझ रहे थे। उन्होंने रिषभा से कहा कि मैं मेरा यह मकान तेरे नाम करना चाहता हूँ, क्योंकि तू सबसे छोटी और मेरे लिए बेटे जैसी है। यदि तुझे एक भाई ला दूंगा तो यह मकान उसे मिलेगा, तुझे नहीं। तुझे भाई चाहिए या ये मकान ? रिषभा जी ने बिना पल भर की देर किए कहा कि उन्हें भाई चाहिए, मकान नहीं।
अस्तु, राखड़ मल सा ने अपने भतीजे, भँवर लाल को गोद पुत्र ले लिया, जिन्होंने कालांतर में अपनी माता जी, चारों बहनें और उनके परिवार के साथ इतना आत्मीयता के साथ रिश्ते का निर्वाह किया जो कदाचित एक सगा भाई भी नहीं कर पाता। यध्यपि पिताजी ने रिषभा जी के नाम गहने व रोकड़ रुपये एक रिश्तेदार की पेढी पर जमा कर दिये ताकि वक्त जरूरत रिषभा जी के काम आए।
जब रिषभा जी तेरह वर्ष की थीं तब एक दिन अचानक एक भद्र पुरुष, श्री बखतावर मल करनावट, उनसे मिलने उनके घर आ पहुंचे।वस्तुतः, वे अपने मँझले लड़के के लिए बहू की तलाश में थे, और राखड़ मल सा, जोधपुर के दरबार स्कूल में प्राचार्य होने से प्रख्यात थे।
रिषभा जी के अनुसार उस समय वे हतप्रभ रह गईं थीं। न उन्होंने कपड़े ढंग से पहने हुए थे और न ही बाल संवारे हुए थे।
श्री बखतावर मल जी को अपने लड़के के लिए यह लड़की अनायास ही पसंद आगयी। रिषभा जी के पिताजी ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि वह अभी छोटी हैं। पर उन्होंने सोने की एक मुहर रिषभा जी के हाथ में दी और विलंब से शादी करने की बात करते हुए रिश्ता पक्का कर लिया।
रिषभा जी के अनुसार उन्हें आज तक यह बात समझ में नहीं आई कि बखतावर मल सा ने उनमें ऐसा क्या गुण देखा था कि पहली बार में अनायास इतना बड़ा निर्णय ले लिया। दुर्भाग्य वश आकस्मिक हृदयाघात से बखतावर मल सा असमय काल कवलित हो गए।
इस प्रकार शीघ्र ही रिषभा जी का विवाह महामंदिर के प्रतिष्ठित करनावट परिवार में श्री जसवंत मल सा के साथ वर्ष 1944 में अक्षय तृतीया के दिन संपन्न हुआ। धर्म परायणा एवं मधुर स्वभावी उनकी सास ने बड़े लाड़ प्यार से अपने परिवार में रिषभा जी को समाहित किया। ससुराल पहुंचते ही रिषभा जी ने अपने गहने एवं ससुर जी द्वारा दी गई सोने की मुहर अपनी सास को सुपुर्द की और उनके शब्दों में वे फालतू के जंजाल से मुक्त हो गईं।
श्री बखतावर मल सा के आकस्मिक निधन से घर में वित्तीय संकट की स्थिति आ गई थी। जसवंत मल जी के बड़े भ्राता अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहते थे, अतः उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ कर एक दुकान कर ली। कुछ समय पश्चात ही दुर्घटना वश दुकान में आग लग गई और सामान नष्ट हो गया। लेकिन तभी जसवंत मल सा की जयपुर में एक सरकारी नौकरी लग गई और अपनी माता जी की इच्छा के फलस्वरूप वे जोधपुर से जयपुर प्रस्थान कर गए।
इस समय तक वे चार बच्चों के पिता बन चुके थे। यद्यपि सीमित आय से घर का खर्च एवं जोधपुर स्थित परिवार की जिम्मेदारी उठाना दुष्कर था, परन्तु प्रतिभाशाली जसवंत मल जी की आगे अध्ययन करने की लालसा और पद में आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा में कमी नहीं थी।
ऐसे समय में रिषभा जी अपने पिताजी द्वारा दी गई धन राशि से जसवंत मल जी के पढ़ने एवं बढ़ने में सहायक बनीं और जसवंत मल जी एल एल बी परीक्षा उतीर्ण करने के साथ साथ राजस्थान प्रशासनिक सेवा में भी चयनित हुए।
आरएएस सेवा के दौरान श्री जसवंत मल सा का स्थानांतरण पींडवाडा, चिड़ावा, जैसलमेर जैसे स्थानों पर हुआ, इस दौरान बच्चों की पढ़ाई के लिये रिषभा जी एक मकान लेकर पति से दूर अकेले जोधपुर भी रहीं। लेकिन इस दौरान भी उनका धर्म ध्यान, दान पुण्य,त्याग तपस्या अनवरत चलता रहता था।
वर्ष 1964 में जसवंत मल सा का स्थानांतरण जयपुर हुआ तो दम्पत्ति ने स्थाइ रूप से जयपुर बसने का मानस बना लिया। अतएव, जसवंत मल सा ने बापू नगर में एक सरकारी भूखंड आबंटित करा कर एक मकान बना लिया।
रिषभा जी ने अपने जीवन काल में आईं कई पारिवारिक आकस्मिक आवश्यकता के समय, हमेशा बड़ा हृदय रखते हुए, अपने पति को सहयोग देने की दृष्टि से अपने पिताजी द्वारा दी गई धनराशि को उपयोग में लेने के लिये कभी संकोच नहीं किया।
श्री जसवंत मल सा के ईमानदारी, कर्म निष्ठा और अनुशासन सहित जीवन से परिवार ने अपने सभी रिश्तेदारों के बीच, समाज में तथा सरकारी क्षेत्र में अपना एक प्रतिष्ठित स्थान बनाया।
श्रीमती रिषभा जी की धार्मिक प्रवृत्ति व धर्म कार्य में उनकी रुचि परिवार व समाज में एक उदाहरण के रूप में स्थापित है। उन्होंने अपने जीवन काल में एक अवसर ऐसा नहीं गंवाया ,जब स्वाध्याय, संत दर्शन, प्रवचन, तपस्या, त्याग, दान को विस्मृत किया हो। अट्ठाई, मास खमण, वर्षी तप जैसी उपलब्धियां उन्होंने प्राप्त की हैं।धर्म कार्य में समाज को भी उनका बड़ा योगदान रहा है। स्थानक व स्कूल में कमरे बनवाना, दया पालना, छात्रावास में धनराशि उपलब्ध कराना आदि कार्य उनका निरंतर जारी रहता है।
श्री जसवंत मल सा का उनको पूरा सहयोग था। परंतु जब रिषभा जी 58 वर्ष की थीं, तब नियति के अधीन, जसवंत मल सा ने रिषभा जी का साथ छोड़ दिया और वे 12 फरवरी1988 को दिवंगत हो गए। इस गम्भीर आघात के बावजूद वे विचलित नहीं हुई, और उनका धर्म ध्यान ही उनका संबल बना.
उम्र के ढलते पड़ाव पर उन्होंने बहुत विवेक और सौहार्द से अपनी परिसंपत्तियों का विभाजन कर दिया. उन्होंने सीख और संदेश दिया कि सुख पत्थर के घर में नहीं परन्तु स्नेह और परिवार में होता है.
उन्हें दूसरा आघात तब लगा जब उनके कनिष्ठ पुत्र, महेन्द्र जी, दिनांक 21 फरवरी 2017 के दिन काल कवलित हो गये। इस प्रकार अनेक दुखद घटनाओं व विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने पुण्य के बलबूते पर उनका आध्यात्मिक जीवन जीवंत है। संसार मोह माया से विरक्त,अब वे अपना संतमय जीवन व्यतीत कर रही हैं.
आज रिषभा जी अपनी उम्र के नब्बे वर्ष के पड़ाव पर हैं। और आज भी दिन में आठ सामयिक करना, जैन धर्म की पुस्तकें पढ़ कर बच्चों को धार्मिक कहानियां सुनाना, जाप करना, तपस्या करना, दान दया करना अनवरत जारी है और हम सब के लिए प्रेरणा दायक भी है।
आज भी वे अपने मानसिक रूप से दिव्यांग, पड़ दोहते सौमिल को प्रतिदिन फोन पर मंगलाचरण सुनाती हैं.
श्रीमती रिषभा जी करनावट को उनके 90 बसंत पूरे करने के उपलक्ष्य पर हम उन्हें नमन करते हैं, हार्दिक बधाई देते हैंऔर उनके अच्छे स्वास्थ्य व दीर्घायु होने की कामना करते हैं।
साथ ही यह भी प्रार्थना करते हैं कि उनका आशीर्वाद, स्नेह एवं मार्गदर्शन हमें सदा सतत मिलता रहे।
June 24, 2020
Live Like Ghost
June 16, 2020
No to Not possible
1. "Not possible", I was pleading.
2 ."Not possible", I had murmured under my breath.
These unforgettable events have made me resolve never to say, "Not possible", even if there is an invitation to visit Timbuktu.
It's always, 'Insha Allah, God willing or Bhagwan ne chaha to ", thereafter!!
Mysterious are the ways of the Providence!!
Author
Ramessh Kumar Jain IAS Retd. |
April 26, 2020
किस लिए ?
गिला नहीं की प्यार के संग गम दिया,
ख़ुशी के साथ आँखों को भी नम किया
सवाल है कि प्यारी थी जब में तुम्हारे लिए,
कैसे पनपने दी नफरत उसके दिल में मेरे लिए?
दुनिया की नज़रों से बचा के रखने वाले,
तुम को मेरा, मुझको अपना कहने वाले,
क्यों संभाल न सके खुद को, मुझको संभालने वाले,
कैसे छोड़ दिया मुझे सैलाब में बह जाने के लिए?
रोक न सके तुम तूफ़ान को बढ़ने से पहले
अब कहर के ठहर जाने की बात करते हो,
नफ़रत करने वालो की क्या कमी थी
जो जोड़ दिया एक और को सह जाने के लिए?
April 17, 2020
एहसास
कितना खास था वो एहसास ,
जैसे हो खुद से मिलने का आभास ।
खामोश से थे तुम, चुप सी मैं ,
बातें न शब्दों में, न ही आँखों से।
साँसे थी साँसो में घुली हुई ,
पर ऐसे, की न बढ़ी न ही थमी हुई ।
अनजान नहीं, तो पहचान भी खास नहीं ,
पर एक दूसरे को, जानने का भी प्रयास नहीं ।
मिली हो मानो , एक दूजे की धड़कन,
सानिध्य की स्वीकृति देता मेरा अंतर्मन।
कुछ तो झिझक थी , था कुछ मीठा सा डर,
मैं जिसे खोजती रही , शायद वही थी ये डगर।
March 21, 2020
मुझको मुझ से मिलाने आए हो तुम !
भीड़ में शायद तनहा जी रही थी मैं ,
मुझको मुझ से मिलाने आए हो तुम!
हज़ारों में हो एक, फिर भी चुना कहाँ मैंने,
तोहफ़ा बनके जिंदगी का, जिंदगी से मिलवाने आए हो तुम !
अधूरे ख़्वाबों में भी ख़ुश सी थी मैं ,
सपनें मेरे साकार करवाने आये हो तुम !
परछाई नहीं आइना हो, मुझ में छुपी ,
हर खूबसूरती दिखाने आये हो तुम !
बेइन्तिहाँ मुहोबत्तें की हैं, मगर इस बार ,
खुद से ही इश्क़ में डुबो देने आये हो तुम !
यूँ तो कोई कमी नहीं थी , फिर भी ,
मुझसे ही मुझे पूरा करने आए हो तुम।
--हिना
February 2, 2020
When she was exclusively mine!
January 21, 2020
Thanks for the wonderful time!
Hina Di the feelings are so mutual,
As the time spent with you was so incredible,
Your persona, love, care, and energy
Makes everything around so lovely,
Thanks for coming and giving some wonderful memories,
Which I would surely cherish for centuries...