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February 19, 2018

संस्मरण : मेरे गुरु, मेरे संरक्षक!

श्री युगल जी साहब युगल एक युग पुरुष हैं । युग पुरुष युगातीत, कालातीत एवं चिर स्मृत होते हैं ।

            मैं 18 वर्ष की उम्र में उनके संपर्क में आया और उनके प्रवचन सुने ।एक विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मैं स्वभाव से जिज्ञासु एवं साधारणतया प्रभावित नहीं होने की मनःस्थिति का युवक था ।
बाबू जी के मुखारविंद से खिरने वाली वाणी की छटा अनुपम थी। एक एक शब्द स्पष्ट धार दार, पत्थर की लकीर की भांति प्रतीत होता था ,जो  प्रमाणित रूप से  प्रतीत कराता था कि यह अत्यंत सहज, स्वाभाविक और शाश्वत सत्य है। स्व -पर का प्रज्ञा छीनी से भेदकर *स्व* में निर्विकल्प स्थित होना, जहां  *मैं* का स्थान भी न हो, ऐसे अलौकिक अनुभव को वे इतना ही सहज बनाकर अभिव्यक्त करते थे ।

             उस समय मेरे मन में यह संशय हुआ कि संसार की यात्रा विभिन्न विविधता वाली और लंबी होती है ।जो श्रद्धा अनुभूति और ज्ञान बाबू जी के सानिध्य में प्राप्त हो रहा है, वह कालांतर में  विस्मृत तो नही हो जाएगा। लेकिन इसके साथ ही यह विचार भी तुरंत और सहज रुप से आ गया कि जब तक संसार है तब तक दुःख निश्चित है और यही दुःख आपको स्वाभाविक ही आत्म स्वरूप की ओर पल-पल स्मृत कराएगा ।तभी विश्वास हो गया कि एक अपूर्व ,अमूल्य और शाश्वत लब्धि आपके हाथ लग गई है ।देवगुरु शास्त्र का आलंबन और विकल्प भी   अस्थाई  है और अंततोगत्वा त्याज्य है ।ऐसा प्रतीत हुआ कि इस संसार रूपी महासमुद्र में आप अकेले हो जाने पर भी अकेले नहीं होंगे।

            मैं उनके आत्मज्ञान और स्वानुभूति से अत्यंत प्रभावित था। वे निर्विवाद कवि हृदय सम्राट थे ।
उनकी जेष्ठ पुत्री की शादी में मैं उपस्थित था ।बेटी की विदाई पर उन्हें अत्यंत भावुक होते हुए जब मैंने देखा तो मुझे असमंजसता वश कुछ समझ नहीं आया। इतने ज्ञानी, मर्मज्ञ, संसार को तार तार कर स्पष्ट विदित कराने वाले मनीषी की आंखों में आंसू ! लेकिन समाधान में भी अधिक विलंब नहीं हुआ।जो भावुक नहीं, द्रवित नहीं,करुणा मय नहीं, वह कवि भी नहीं बन सकता है। जब मेरी माता श्री का निधन हुआ और कालांतर में जब मेरी पुत्री की विदाई हुई तब मुझे इस बात का स्वंय अनुभव हुआ।

           मैं जिला कलैक्टर बारां  के पद पर कार्यरत था।तब मुझे ज्ञात हुआ कि इस जिले में ही वह गांव स्थित है, जो बाबू जी की जन्म स्थली है।जब मैं उस मकान में पहुंचा, जहाँ यह महान आत्मा अवतरित हुई थी, तो मुझे एक प्रकार की अप्रतिम और अलौकिक अनुभूति हुई।मुझे लगा कि मुझे सही, सहज और शाश्वत मार्ग पर प्रशस्त कराने वाले मेरे कर्णधार, मेरे गुरु और मेरे संरक्षक की जन्म स्थली पर मेरे आने की परिणिति और परिणमन एक अनूठा अस्वभाविक संयोग नहीं है।


पूज्य बाबू जी की पुण्य स्मृति को मेरा शतः शतः नमन् ।


रमेश कुमार जैन सेवानिवृत IAS 


1 comment:

  1. I feel like reading it again and again. Not only because of the Hindi language that makes me nostalgic, but the profound thoughts which are beautifully woven into sentences.
    Please keep writing!

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